The findings of my first study - gender in technical institutes
My roles and responsibilities at the Feminist Approach Technology (FAT) have been dynamic, and every day brings new challenges. FAT has helped me develop skills to face difficult situations with courage and efficiency.
During my six month fellowship at FAT I was asked to list the number of Polytechnic and ITI colleges in South Delhi. I was also asked to make a report about any discrimination between boys and girls during course selection.
Polytechnic and ITI colleges are institutes where we are provided technical and vocational training. I went to find out how many courses are regarded as "male courses" and how many as "female courses." I also wanted to understand why there was this discrimination when selecting these courses for students.
I visited several colleges and interviewed 18 people, asking them if they noticed this discrimination. All 18 people said that they were aware that there is discrimination, but it was nothing unusual for them because they have been subjected to it all their lives. Even in families that allow women to pursue higher studies, the courses are selected by their parents.
The 18 students I interviewed said many different things, but they all had the same underlying message. The girls that I spoke to were enrolled in courses like Fashion Design, Computers or Law, and only one girl was studying the Basic Electronics course, while the boys were enrolled in courses like Electronic Machinery, Civil Engineering.
I asked the girls the difference between a "boy's course" and a "girl's course" and why do people think there is a difference? They said that the discrimination begins as children, and continues while selecting courses during college. They said that, between their responsibilities towards their home and family, women do not have the time to pursue their interests. Boys have time, and support from their families to pursue whatever course they like. Parents believe that girls are not capable of studying further and are better off sitting at home.
I was also able to speak to a professor who said that even though boys and girls study the same course, when it comes to finding jobs there are many companies that do not hire women. These companies have rules that do not allow women to work in specific fields. Women are considered physically weaker than men, and they face other issues when they hire them, for e.g. Muslim women cannot offer prayers in public.
Many students said that while the Civil Engineering teachers do not discriminate between boys and girls in class, whenever they require any assistance they always ask the men. This, they say, is not because they are discriminating. Students tend to turn a blind eye to this subtle discrimination.
The interviews I conducted showed me that it is ingrained in our minds that men are stronger than women and women are simply not capable of doing the things that men can. Our behavior may have a direct or indirect effect on the way girls perceive themselves. This kind of discrimination is the result of preconceived notions about women that exist in society.
The interviewees said that 80% of the girls, themselves, will not opt for courses like Civil Engineering or Electronics. Only 20% actually select these courses and are able to do well in male dominant fields.
As I continued my research my friends informed me that even in their colleges the number of women enrolled is far less than the men. They said that the difference may be because families believe that there is no use of sending a woman to college as, eventually, all they have to do is get married. The boys, on the other hand, are encouraged by their families to study as much as possible. This behavior affects the girl's self-confidence.
In my six-month fellowship I have tried to witness, write about and understand this discrimination. It is important that we, as a society, have a debate over this topic because if we do not acknowledge or discuss the issue we can never find a solution for it.
I have learnt a lot in my four years at FAT, and in this fellowship. The students in Polytechnic and ITI colleges hardly notice the discrimination we face, and even when women are aware of it, they do not raise their voice. I saw that whether in class or in college, the number of women enrolled is always less, and now I know why.
As I approach the end of my fellowship, the experience I gained has taught me a lot. With this report I want to bring together what I have learnt in these six months and show it to the world. My report is available here to read. However it is in Hindi. A colleague of mine will soon take some time out to translate it and share here :)
- By Rekha Yadav. Rekha is an alumni of FAT's Tech Center and presently a Program Trainee at FAT. She has been associated with FAT for 4 years. She started as a student, then started volunteering, joined as an intern, got a fellowship and now is a part of our team.
फैट मैं मेरी हर नई भूमिका के साथ मेरी जिम्मेदारियाँ भी बदलती गयी | इन कुछ सालों में फैट ने मुझे हर कदम पर नई-नई जिम्मेदारियाँ दी हैं, ताकि मैं अपने अंदर के साहस को बढ़ा सकूँ और अपनी जिम्मेदारियों को समझ कर बर्खूबी निभा सकूँ, जो मैं अभी भी कर रही हूँ |
फैट ने मुझे छः महीने की फ़ेल्लौशिप करने का मौका दिया, जिसमें मुझे एक अनुशोधन (रिसर्च) करना था | मुझे अपने अनुशोधन से यह पता लगाना था कि साउथ दिल्ली में कितने पॉलिटैक्निक या आई.टी.आई कॉलेज हैं और उनमे कोर्स में जेंडर को लेकर लड़का और लड़की के बीच भेदभाव होता है या नही |
पॉलिटैक्निक और आई.टी.आई दौ ऐसी जगह हैं जहाँ हमारे कौशल को बढ़ावा दिया जाता है, और हमें तकनिकी क्षेत्र में आगे बढ़ाया जाता है । इन्मय कितने कोर्स होते हैं? उनमें लड़कियों के लिए कौन से कोर्स है? और लड़को के लिए कौन से कोर्स है? मैं इस चीज को समझना चाहती हूँ, और लोगो को बताना चाहती हूँ | ऐसा क्यों होता है कि लड़का और लड़की के कोर्स को अलग माना जाता है और कोर्स के मुताबिक भी लड़का-लड़की को बाटा जाता है?
यह पता लगाने के लिए मैंने कुछ कॉलेजों मे मुआईना किया, और वहाँ जाकर छात्राओं से बातचीत की | मैंने अठारह लोगों के साक्षात्कार (इंटरव्यू) किए | मैंने जितने भी लोगों से बातें करी उन को पता था कि कार्यप्रणाली (कोर्स) को लेकर जेंडर भेदभाव होता तो है, पर वह किसी को बताते नही हैं ? इसका कारण यह है कि वह कभी महसूस ही नही करते है कि उनके साथ किसी भी तरह का भेदभाव होता है | उनको लगता है कि वह सब चीज़ कर सकते हैं, मगर उस आजादी मे भी बहुत सी परेशानियाँ हैं | हमारे बड़े होने तक हर चीज मै भेदभाव देखना, उसे महसूस करना, उसके बाद पढ़ाई में भी यह देखना कि किसको पढ़ाना हैं और किसको नही |
अगर लड़कियों को पढ़ने की आज्ञा मिल भी जाए तो भी उनके माता-पिता चुनाव करते हैं कि उनको क्या पढ़ना हैं | मैने अठारह लोगों से बात करी थी और सब के अलग-अलग विचार थे, मगर वो कही ना कहीं एक-दूसरे से मिल रहे थे | मेरे साक्षात्कार में जितनी भी लड़कियां थी वह फैशन डिज़ाइन, कम्प्युटर कोर्स या वकालत की पढ़ाई कर रही थी | मुझे सिर्फ एक लड़की मिली जो एलेक्ट्रोनिक मशीन का कोर्स कर रही थी, वो भी बुनियादी (बेसिक) | लड़के, इलेक्ट्रोनिक मशीनी, सिविल एंजीनियरिंग, क्षेत्रीय काम के कोर्स कर रहे थे | जब मैंने लड़कियों से बात की तो पूछा कि क्या होता हैं लड़की और लड़के वाला कोर्स और क्यूं लोग ऐसा बोलते हैं? लड़कियों ने कहा कि, पहली बात लड़का और लड़की के बीच शुरू से ही भेदभाव होता आया हैं, ऊपर से कोर्स के नाम पर भी लड़का और लड़की को बाँट दिया गया | लड़कियों को जब अपनी परिवार और घर के काम से छुट्टी नही मिलेगी तो वह कैसे अपनी दिलचस्पी और अपने भविष्य को आगे कैसे बढ़ाएगी? लड़कों के पास तो किसी भी तरह का कार्य करने के लिए वक्त होता है | वह जो चाहे पढ़ सकते है और परिवार वालों का सहयोग भी होता हैं | परिवार वाले कहते हैं कि लड़कियां कहा इतना पढ़ पाएँगी, वह घर मे ही अच्छी लगती हैं |
उसी बीच मेरी बात एक प्रोफेसर से भी हुई | उनका कहना था कि लड़के और लड़कियाँ साथ में कोर्स कर तो लेते हैं, मगर जब नौकरी करने का समय आता हैं, तब लड़के और लड़कियां को कही-कही नौकरी मिलती हैं जैसे, लड़को को निर्माण इंजीनियरिंग में जगह मिलती हैं और लड़कियों को नही मिलती क्यूंकि आज-कल की कुछ कंपनियों में ऐसे नियम हैं कि लड़कियों को क्षेत्रीय काम नही दिया जाये । शारीरिक तौर से औरतों को आदमियों से कमज़ोर माना जाता है और धर्म का भी विकल्प सामने आजाता है जैसे की सबके सामने नमाज़ पड़ने मे भी दिक्कत होती है |
कुछ छात्राओं से पता चला कि सिविल एंजीनियरिंग में अगर लड़का-लड़की साथ में पढ़ते हैं तो टीचर कभी यह नही कहते हैं कि लड़कियाँ नही कर सकती हैं, लेकिन जब कभी उनको मदद की जरूरत होती हैं तो टीचर कहते हैं की लड़कों की मदद ले लेनी चाहिए, मगर इसका मतलब यह नही है कि उनके बीच भेदभाव वाला व्यहवार है | इससे यह चीज भी पता चली कि भेदभाव होते हुए भी उसे अनदेखा कर दिया जाता है | इस अनुशोधन से यह बात सामने आई है कि इंसानों को लड़के ज्यादा ताकतवर लगते हैं, सोचते हैं वह सब कुछ कर सकते हैं और लड़कियों कुछ नही कर सकती, उनके बस की ही नही हैं | जब हम ऐसा सोचने लगते हैं तो हम छात्रों के बीच प्रत्यक्ष रूप से नही बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से उनको कमजोर महसूस करवाते हैं और छात्रों को पता भी नही चलता हैं कि उनके साथ यह होता है | इस तरह के भेदभाव सामाजिक और सांस्कृतिक पूर्व धारणाओं पर आधारित है |
इस साक्षात्कार (इंटरव्यू) को करते समय मैंने जितने भी लोगो से बात की, चाहे वह लड़का, लड़की, अध्यापक या अध्यापिका, मुझे यह पता चला है कि 80% लड़कियाँ हैं जो इलेक्ट्रोनिक मशीनी, सिविल एंजीनियरिंग, क्षेत्रीय काम में कोर्स नही चुनती है | सिर्फ 20% लड़कियाँ ही हैं जो यह कोर्स चुनती हैं और आगे जाकर सफल हो पाती है, लड़कों की संख्या कहीं अधिक ज़्यादा है इन कौरसों मैं |
मेरी अनुशोधन का कार्यकर्म किसी न किसी रूप में जारी रहा | मुझे मेरे मित्रों ने और जानकारी दी इस विषय पे क्योकि उनको यह प्रोजेक्ट का मुद्दा बहुत ही अच्छा लगा और वह मेरी मदद कर रहे थे | बीच में मेरे कुछ दोस्तों ने इस मुद्दे से जुड़ी कुछ बाते बताई | उनका कहना था की उनके कॉलेज में भी इन कोर्स मे लड़कियों कि संख्या कम है और लड़को कि ज्यादा | उनको लगता है कि इन कोर्स में लड़कियों कि संख्या इसलिए कम है, क्योकि उनके परिवार वाले उनका सहयोग नही देते है, और उनके बड़े-बुजुर्ग कहते है कि लड़कियों को क्या जरूरत है इतना आगे पढ़ने की, क्या करेंगी पढ़कर, आगे जाकर शादी ही तो करनी है, और उनका आत्मविश्वास कम करने कि कोशिश करते है | साथ ही साथ लड़को को बढ़ावा देते है कि वह जितना हो सके उतना आगे तक पढे और घर का नाम रोशन करे | लड़कियों के साथ इतना बेदभाव होता है, उनके आत्मविश्वास को खत्म कर दिया जाता है, तभी लड़कियों कि मात्रा लड़को से कम है |
इस भेदभाव के मुद्दे पर चर्चा करना बहुत ही ज़्यादा ज़रूरी है, क्यूंकि जब तक हम आगे बढ़कर इन मुद्दों पर चर्चा नही करेंगे, तब तक लोग भी इन मुद्दों के बारे में नही सोचेंगे | मैंने अपनी छः महीने की फ़ेल्लौशिप के ज़रिये इस भेदभाव को देखा, समझा, पढ़ा और लिखा | हमें लोगों के साथ मिलकर इन मुद्दों पर चर्चा करनी चाहिए, हमें एक दूसरे से भेदभाव के ऊपर विचारविमर्श करना चाहिए, ताकि यह हमारी ज़िंदगी मैं जो भेदभाव का मुद्दा है, हम उसको मिलकर हल कर सके |
फैट के साथ इन चार सालों में मैंने जितनी भी समझ बनाई थी, और इस छः महीने के अनुशोधन (रिसर्च) से मुझे और बहुत कुछ पता चला | पॉलिटैक्निक या आई.टी.आई कॉलेज में जहाँ हम पढ़ने जाते है, वहाँ हमारे साथ किस तरह का व्यहवार होता है, और हमें पता भी नही चलता है, मगर जब कभी महसूस भी होता है तो लड़कियाँ कुछ कहती ही नही है, चुप रहती है और कक्षा में लड़को कि ज्यादा आवाज़ आती है, क्यूंकि लड़कियाँ लड़कों के सामने कम बोलती है | कॉलेज हो या कक्षा, लड़को कि मात्रा ज्यादा होती है और लड़कियों की कम | यह किस वजह से होता है यह भी जानने को मिला | इन छः महीनो के अनुशोधन (रिसर्च) की परियोजना करते समय मेरे लिए बहुत अच्छी अनावृत्ति रही, और अब मेरी फ़ेल्लौशिप का अंतिम पड़ाव चल रहा है| एक किताब के माध्यम से मैं अपनी अनुशोधन से हासिल हुई जानकारी लोगों के सामने लाना चाहती हूँ |